ह्रदय विदीर्ण शुष्क सी रेत
बना आज मानवता का खेल
करुणा का हो रहा उपहास
जीवन निर्वाह असत्य के आस पास
निरंकुश विचारों में है अस्थिरता
चिंतन मनन से विलुप्त गंभीरता
एक अभेद लक्ष्य जिसका नहीं कोई वजूद
मृगमरिचका सा जिसका रूप
है दौड़ता जा रहा लिए मन में संताप
बिखरता हुआ खुद से लड़ता हुआ दिन रात
सूने नयनों में अभिमान की भाषा
थके से कदम पूंछते क्या है तुम्हारी आशा
ठहर जरा ओ मानव किसलिए ये तन पाया
भूल बैठा मानवता क्यों सत्य से भरमाया
बिसार अपनी भूल को तू श्रेष्ठता का चयन कर
विवेकशील है तू मूल सिद्धांतों का अनुसरण कर
मत अंधी दौड़ में शामिल हो जरा तू हो जा सचेत
ह्रदय विदीर्ण शुष्क सी रेत
बना आज मानवता का खेल
पूनम राठौर