जो हो सच्चा ज़माने को वो बेईमान लगता है
फ़रिशता भी न जाने क्यों इन्हें शैतान लगता है
खिले हैं फूल गुलशन में वो पर वीरान लगता है
हैं कितने आदमी घर में मगर सुनसान लगता है
कठिन कितना बताना है भला कैसे बताऊं मैं
मिरे घर में मुझे हर शख्स अब अंजान लगता है
नसीहत देना मुश्किल काम तो होता नहीं प्यारे
कठिन करना है कहना जो यहाँ आसान लगता है
जहाँ झूठे इकठ्ठे चार हो जाएँ वहाँ कोई
करे ईमाँ की जो बातें वो बे-ईमान लगता है
जिसे तुम फ़ाइदे की बात कहते हो मिरी ख़ातिर
मुझे उस बात में भी अब यहाँ नुक़सान लगता है
मिरे महबूब को क़ासिद मिरा पैग़ाम ये देना
बिना उसके मुझे ये घर बहुत सुनसान लगता है
बचा क्या है बताओ 'ओम' किसने क्या नहीं देखा
मुझे धरती पे अब इंसान ही हैवान लगता है
_ विपिन दिलवरिया 'ओम'
मेरठ , उत्तर प्रदेश