नहीं दूजा ज़री’आ और न कोई भी बहाना है
उसी रस्ते से जाना है उसी रस्ते से आना है
अजब सी कश्मकश में मुब्तला हूँ आज कल यारो
जिसे सब कुछ बताना था उसी से अब छुपाना है
वो बदलें में खुशी के, गम की दौलत दे गया मुझको
मिरे हिस्से में जख्मों का बचा यारो ख़ज़ाना है
बड़ा अद्भुत अनोखा रोग है दर्द-ए-महब्बत का
लगे मीठा वो उतना ज़ख़्म जो जितना पुराना है
मिरा किरदार है जोकर के जैसा जिंदगी में अब
मुझे रोना है लेकिन मुस्कुराकर ही दिखाना है
भले कितनी भी आएँ अड़चने उसमे मगर फिर भी
उसी रस्ते पे चलना है मुझे मंजिल को पाना है
लड़ाई जिंदगी से जिंदगी भर लड़नी है लेकिन
पता ये भी है इक़ दिन जिंदगी से हार जाना है
ये माना इल्म थोड़ा भी ग़ज़ल का मैं नहीं रखता
मगर मेरा ये अंदाज़-ए-बयाँ तो शाइराना है
_ विपिन दिलवरिया ‘ओम’
मेरठ , उत्तर प्रदेश