अब वो महब्बत करने के क़ाबिल नहीं रहा
सब कहते हैं सीने में उसके दिल नहीं रहा
माना निशाँ उनके गुनाहों के मिले नहीं
पर ये न समझो शख़्स वो हाइल नहीं रहा
करता रहा हर वार वो पर्दे के पीछे से
सब कुछ किया रण में मगर शामिल नहीं रहा
उसने दवा दी ही नहीं थी वक़्त पर उसे
फिर यूँ हुआ क़ातिल जो था क़ातिल नहीं रहा
दम तोड़ता वो दिख रहा झूठों की भीड़ में
सच है वही अब सच के जो क़ाबिल नहीं रहा
_ विपिन दिलवरिया 'ओम'
मेरठ, उत्तर प्रदेश