किसे कैसे बताऊं ज़िंदगी कैसे ये चलती है
मिरी ऐसी तबीअत है कभी गिरती सँभलती है
ये कैसी जिंदगी है , जी रहा हूं रोज़ मर मरके
न रहता हूं मैं ज़िंदा अब न मेरी जाँ निकलती है
यही रोज़ी यही रोटी यही फुटपाथ घर मेरा
यहीं पर दिन निकलता है यहीं पर शाम ढलती है
मिरी तक़दीर में आगे है क्या लिक्खा ख़ुदा जाने
न ये रस्ते बदलते हैं न किस्मत ही बदलती है
मैं खिलता फूल हूं लेकिन मिरा बिस्तर है काँटों का
मिरी मुस्कान के पीछे मिरी पीड़ा मचलती है
करे कि सपर भरोसा 'ओम' झूठे सब सियासत में
बदलती सूरतें हैं बस नहीं सीरत बदलती है
_ विपिन दिलवरिया 'ओम'
मेरठ, उत्तर प्रदेश