अभी दिल में कोई हसरत नहीं है
महब्बत के लिए फ़ुर्सत नहीं है
हैं ज़िम्मेदारियाँ अफ़्ज़ूँ ये ऊपर
मैं हूँ ग़ुरबत में सिर पे छत नहीं है
अभी मैं जी रहा हूँ रोज़ मरकर
मगर मरने की भी मुहलत नहीं है
मैं वाक़िफ़ हूँ सियासत के हुनर से
मिरी गिरगिट सी पर फ़ितरत नहीं है
मैं हर करतूत उसकी जानता हूँ
वो पागल है मुझे हैरत नहीं है
अदा है खूबसूरत अप्सरा सी
सभी कुछ है , मगर ग़ैरत नहीं है
मुबारक हो तुझे तेरा ये लहज़ा
मिरे लहज़े में ये वहशत नहीं है
तुझे करता सर-ए-बाज़ार लेकिन
तिरे जैसी मिरी आदत नहीं है
गिले शिकवे बहुत है 'ओम' फिर भी
महब्बत हो न हो , नफ़रत नहीं है
_विपिन दिलवरिया 'ओम'
मेरठ, उत्तर प्रदेश