फटी-सूखी धरती पर बैठा मानव
मेघा कों बुला रहा हैं |
उस सूखी डाल पर बैठा, काला कौवा
काल को बुला रहा हैं |
वह प्यासा कौवा चीख-चीखकर ,
अपनी जान कों गवा रहा हैं |
दूर-दूर तक नदी-तालाब ,
उसको न सुझ रहा हैं |
अब साँसो का पहरा हटता ,
और आँखों पर , अंधियारा आन पड़ा हैं |
कुछ ही पल में उसका बदन
धरती पर मुर्छित , गिरा पड़ा हैं |
दूर से इक दुबला कुत्ता
उसे देख , दौड़ आ खड़ा हैं |
नोंच-नोंचकर उसका सूखा बदन
अपनी भूख को मिटा रहा हैं |
मिटी भूख से , कुछ क्षण के लिए,
वो अपने काल को टाल रहा हैं |
पर रोकेगा काल को कैसें ?
जो उसके सिर पर भी , मंडरा रहा हैं |
शिखा ताँती