जल उठा , सच का दीया
देख झूठ ने उसके नीचे , शरण लिया |
बचना चाहता हैं , इन्सानी हाथों से
थक चुका हैं , इन्सानी दावों-पेंचो सें |
करता था , जो कभी खुद पर अभिमान
चकनाचुर हो चुकी हैं , उसकी शान |
लिया था जन्म जिसने , करने को शासन
आया हैं आज , मांगने को दया का आसन |
यह सब देख जब सच मुस्काया
तभी झुठ को , सच पर क्रोध सा आया |
क्रोधित झुठ , पुछ बैठा सच से
क्या तुम और इन्सान मिले हुए हो शुरू सें ?
साथ दिया था , मैंने उसका
नाम किया उसनें तुम सबका |
करता हरपल सब पर अन्याय
अन्त में कहता-यही तो हैं न्याय !
कर मेरा उपयोग आदमी बन बैठा हैं सच्चा
अपनी शासन का , यह तरीका न अच्छा |
तभी गुजरी वहाँ सें , इक काली छाया
और दीया का लौ डगमगाया |
देख उसे ; झूठ के मन में , डर सा समाया
कहा उसनें – यही हैं , वो इन्सानी माया |
जीवन भर मुझसे हैं , काम कराया !
मेरी आँखों में आँसु हैं , छलक सा आया |
ये जो लोग हैं , इतनें मतलबी
क्यों हैं इनके कदमों पर दुनिया झुकी |
कहने को तो तुम सच्चे-बलवान हो
पर इस बात से तुम अंजान हो |
गर सोचतें , तुम यह बात हो
कि दुनिया में तुम्हारी अब भी ठाट हो |
न तुम रहें , न मैं रहा
रहा , तो बस इन्सानी जाल रहा |
बच न सकेगा हम दोनों का अस्तित्व
गर बैठें रहें तुम अब भी चित् |
लौटाओं मुझको मेरा संसार ,
वरना हैं , तुम्हारे सच होने पर धिक्कार |
दिलवाओं अब तुम मेरा अधिकार
सुन लो , मेरी न्याय की पुकार |